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कैसा हुआ करता था मारवाड़ का रहन-सहन,खानपान.जिसकी जगह आधुनिक तकनीक ने लेली, कुछ यादगार पंक्तियाँ......

#एक_जमानों

जौर बणाया महल-माऴीया, सरपट बणगी सड़का,
पगडंडियां रा ज़माना गया खेतों बसगी बाड़ा, 
बाड़,भीतळी निपटते देखी,निपट गया आगौर,औगणा,
बाव,बेरी,तला तैवते देखया,अब निपटे ताल-तलाई,नाडा
तेवनवाळा ऊंट मरगया,अब धूड़ फाके उभा लाड़ी-गाडा

कुण्डल,मगरा-तालर जाती देखी, अब नज़रा चढ़ी ओरण
नाण,बेवड़ कदेयी निपटी,ना रही अब वो मोकऴी ऐवड़
बुट्ठी वैळा टोकरीया रा टलमौळ,ना रहया बे हाळी-हलोतीया,
सूड़-टाळी हूं नासमझ रहगया ना समझे ए निदाण-गाठा,
र्थैसर रो जमानों है भुलगो माणस कोकर लेवता हाथे-लाटा,

काऴिग-काकड़ी,खुम्बी,तूंबा,धामण,गंठिया,मीजंल,बोर
मोर-पाखड़ी अंधेरे दोड़ता,जै सुनीजतो मोरिया रो शोर,

कठै रह गी कुम्हार की चाक, अब ना पीटे लौहार ज्यादा लौहे को, 
सोनार-बाणीया‌ बही खाता निपट गया, अब हिसाब चलें हाथों हाथ रो,




मांडणा-बावड़ी ना दिखे,गयो जमानों जिरोही,पटटु,भरत‌ को,
बुट चपल बढ़िया लागे एक जमानों पगरा,मोजड़ी,जूति को,
पेंट शर्ट में पद्मना बने ना ज्ञान तरेटी चोलियां धोती को,
ना दिखे अब पीतल नक्काशी चरखा,पालणा,पलाण,
लुगाई गहणा सु लदबद रैवती चांदी को हो मान,
सोना सू धापुड़ी दुनिया अब भूलेंगी घर आये मेहमान रो सम्मान,

नित धू तारें उगते घटी का घमीड़ बोलता, 
अब ना पता समय सदुपयोग,घर घर आटा चक्की गूंजता,
आछा वापरिया बाजा आछा गाईजा गीत,
गैर-घुमर नाचता देखा इण संग जुड़ी मारवाड़ री प्रीत,
सुगना हुं मौसम बता देता ना रही जरूरत बाने आकाशवाणी री,

पंच पंचायती आछी करता ना रहतो डर बदमाशों को,
पंच बीगड़या पंचायती बीगड़ी अब जमानों नेताओं को,

झोपड़े रो सझ गमतो दिखे, खो गये झोपड़ी,धेळीयों,कोठी,कणारा,भखारी,
लकड़ी पहचाणे आछा घड़ावता, अब है दस्तुर  झीरणे,काड़ियां,जेयी,चौकनी,काड़ी, 
पालर-नीवाण,अब ना रहयो जमानों पाण्टिया,कलार-कराई,पचावा को,
काचर,टीणसी,सांगरी,कैर-कुमट रो स्वाद, 
आछौ धीणों जै ठाट छाछ राबड़ी को,
रिळमिळ रैवतों अब आगयो नूर अकेले रहने को।।😊।।

         लेखक
✍️भुवनेश जाखड़


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